मेलों की बैसाखी घर पर हुई लॉक डाउन
– संदीप ढौंडियाल
देहरादून। वैश्विक महामारी कोविड-19 (कोरोना वायरस) के चलते पूरी दुनिया इस वक्त शून्य बनकर रुकी हुई है। भारत में भी तेजी से इसका प्रभाव लगातार बढ़ता जा रहा है। विविधताओं से भरे इस देश में तमाम जाति, धर्म-संप्रदाय के लोग आपस में मिलकर लगभग प्रत्येक माह कोई न कोई त्यौहार मनाते रहे हैं। विविधताओं में एकता ही भारत की असली पहचान भी है। भारत एक कृषि प्रधान देश है जिसके चलते यहां कई पर्व कृषि से जुड़े हुए मनाये जाते हैं।
मंगलवार को उत्तराखंड के पहाड़ी क्षेत्रों में बैसाखी का पर्व मनाया गया। लाॅक डाउन के चलते यह त्यौहार बस घरों तक ही सीमित रहा। पहाड़ी क्षेत्रों में बैसाख महीने के एक या दो गते को लगने वाले मेलों का बड़ा प्रचलन रहा है। जिसे स्थानीय भाषा में बुड्ढ कौथिग कहा जाता है। देश के विभिन्न हिस्सों में त्यौहारों को लेकर अलग-अलग मान्यताएं हैं। जैसे पंजाब आदि में किसानों के लिए बैसाखी का त्यौहारों एक संकेत होता है कि फसल पक चुकी है जिसकी कटाई की जा सकती है। ऐसे ही उत्तराखंड में बैसाखी को लेकर अनाज के प्रति सम्मान प्रकट करने की मान्यता है। मान्यताओं के मुताबिक वर्ष की पहली फसल गेहूं और जौ (रवि की फसल) आदि को इस पर्व में सम्मान दिया जाता है। जिसमें अनाज की बालियों को घरों के दरवाजे पर टीका लगाकर चिपकाए जाने की प्रथा है। जिसका मतलब है कि घरों पर लटकती हुई अनाज की बालियां उस किसान को अपना आशीर्वाद देती हैं। साथ ही किसान अनाज के प्रति अपना सम्मान प्रकट करता है। इस मौके पर पहाड़ी क्षेत्रों में पूरी पकौड़ी सहित कई पकवान आदि बनाने का प्रचलन है। जिसे फिर पूरे गांव में बांटा जाता है। कई क्षेत्रों में चावल से बने पापड़ बनाने की भी प्रथा रही है। लेकिन लॉक डाउन के चलते तमाम त्यौहार अब सिर्फ घरों तक ही सीमित रह गए हैं। ‘देहरादून दर्पण’ अपने पाठकों का लॉक डाउन का पालन करने के लिए आभार प्रकट करता है। उम्मीद है जल्द ही निराशा के बादल छटेंगे और पूरा देश एक बार फिर से एकजुट होकर सारे त्यौहार मिलकर मनायेगा।