पहाड़ों में जंगल की आग को न्योता देता पिरूल

संदीप ढौंडियाल
देहरादून। उत्तराखंड एक वन बाहुल्य राज्य है। जहां राज्य का 65 प्रतिशत से अधिक क्षेत्रफल वनों से आच्छादित है। जिनमें से 45 प्रतिशत से अधिक वन सिर्फ पेड़ों से आच्छादित वन हैं। पहाड़ी राज्य होने के चलते यहां के ज्यादातर क्षेत्रों में जीवन यापन की निर्भरता भी वनों पर ही आश्रित है। चाहे गांव में पशुओं के लिए चारा हो या चुल्हे की लकड़ी सहित खेती-बाड़ी में भी काफी हद तक पहाड़ी क्षेत्रों के किसान जंगलों पर पूरी तरह से निर्भर हैं।
कोविड-19 (कोरोना वायरस) वैश्विक महामारी के चलते इस समय पूरा देश लॉक डॉन की स्थिति में है। ऐसे में लॉक डाउन मानव जाती के लिए जीवन रक्षक तो हो सकता है लेकिन आने वाले समय में मानव जाति सहित पेड़-पौधे और जंगली जानवरों को घातक नुकसान भी उठाना पड़ सकता है। जी हां! हम आपको डरा बिल्कुल भी नहीं रहे हैं। दरअसल लाॅक डाउन के एक पहलू तो हम सब को दिख रहा है कि प्रकृति अपने पुराने स्वरूप में लौट रही है। दिल्ली जैसे महानगरों में कई वर्षों बाद साफ नीला आकाश दिखाई देने लगा है। वही गंगा-यमुना नदी की सफाई पर जितने पैसे सरकारों ने खर्च किए हैं उससे नदियां कितनी साफ हुई है यह तो सरकारें जानें। लेकिन इस लॉक डाउन ने जरूर कुछ ही दिनों में नदियों में प्राण डालने का काम किया है। वहीं लॉक डाउन का दूसरा पहलू शायद ही सरकारों को और विभागों को नजर आए। गर्मियों का मौसम (ग्रीष्मकाल) आते ही जंगलों में आग लगने की घटनाएं एकाएक बढ़ जाती हैं। जिसमें सबसे बड़ी भूमिका चीड़ की सूखी पत्ती (पीरुल) की होती है। लॉक डाउन के चलते उत्तराखंड के पहाड़ी मार्ग – सडकें इस समय सूने पड़े हैं। जहां बमुश्किल ही कोई चहल कदमी नजर आती है। ऐसे में सड़कों पर पेड़ों की सूखी पत्तियों के ढेर लग चुके हैं। सूखे पत्ते ऐसे स्वतंत्र बिखरे हैं जैसे मानो प्रकृति को राख में करने की खुली चुनौती पेश कर रहे हों।
बता दें उत्तराखंड में सबसे अधिक चीड़ के वन मौजूद हैं। जिनकी संख्या लगभग 4 से 5 लाख तक की है। जिसके बाद साल वृक्षों के 3 से 4 लाख और बांज के भी लगभग 4 से 5 लाख वन मौजूद हैं। पहाड़ी क्षेत्रों में अन्य प्रकार के वन भी तेजी से कोणधारी वन में तब्दील होते जा रहे हैं। जिसमें चीड़ की घुसपैठ सबसे ज्यादा है। आज तमाम बांज के जंगलों में भी चीड़ ने अपना कब्जा कर लिया है। जिसका दुष्प्रभाव पूरी मानव जाति सहित जंगली जानवरों और भूमि की उर्वरता पर भी पड़ रहा है। चीड़ की विशेषता है कि वह बारह महीने हरा-भरा रहता है। जिसके लिए वह अपने आसपास भूमि का सारा पानी सोख लेता है। जिससे आसपास की भूमि पूरी तरह से बंजर हो जाती है। चीड़ प्रकृति को पानी देता नहीं है बल्कि पानी सोख कर खुद ही फलता-फूलता है। वहीं सूखी पत्तियों में आग लगने के कारण पेड़ पौधे और जंगली जानवरों का नुकसान तो होता ही है साथ ही कई गांव ऐसे हैं जो जंगल के बीच बसे हुए हैं। ऐसे में उनके लिए इस तरह पीरुल आदि सूखे पत्तों का भूमि पर पड़े होना किसी टाइम बम से कम नहीं है। वहीं लॉक डाउन के समय वन विभाग के आगे भी सूखे पत्तों को हटाना एक बहुत बड़ी चुनौती है।
हर वर्ष आग लगने से करोड़ों की संपदा नष्ट हो जाती है। ऐसे में सरकार और विभाग को किसी अप्रिय घटना घटित होने का इंतजार नहीं करना चाहिए। बल्कि एक स्थाई समाधान ढूंढने का प्रयास करना चाहिए। विभागों को हर साल करोड़ों का बजट सिर्फ आग से हुए नुकसान की भरपाई के लिए जारी किया जाता है। वहीं अगर पूरा सरकारी तंत्र जिम्मेदारी पूर्वक अपने कार्यों का निर्वहन करें तो प्रदेश के आगे हर साल ऐसी नौबत नहीं आएगी। शासन को चीड़ के पेड़ों की बेलगाम बढ़ोतरी पर लगाम लगाने के साथ ही जलदार पेड़ों के जंगलों को संवारने के विषय में गंभीरता से विचार करना चाहिए। पेड़ों को कटने से बचाने के लिए तो फिर एक गौरा देवी खड़ी हो जायेगी या फिर नेगी दा कोई गीत गा लेंगे पर सवाल यह है कि पेड़ों को जलने से बचाने के लिए आखिर कौन खड़ा होगा।