लॉक डाउन में रिवर्स पलायन, खेती एक बड़ी चुनौती

संदीप ढौंडियाल
देहरादून। उत्तराखंड के गढ़वाल और कुमाऊं में खेती और पशुपालन परंपरागत रूप से ही जीवन के आधार रहे हैं। संभवतः यही कारण भी था कि सन् 1850 में एडकिंसन ने अपनी हिमालयन गजेटियर पुस्तक में लिखा है कि गढ़वाल और कुमाऊं में बसे हुए लोग बहुत संतुष्ट और आत्मनिर्भर होते हैं। कहीं न कहीं यह बात आज भी उतनी ही प्रासंगिक लगती है। पर्वतीय क्षेत्र में बसे हुए लोग मैदानी भागों में रहने वाले लोगों की अपेक्षा ज्यादा तनाव मुक्त जीवन यापन करते हैं। पहाड़ों में रहन सहन के तौर-तरीके और वहां का वातावरण भी एक मुख्य कारक है। साथ ही पर्वतीय गांव में लोगों के बीच आपस का मेलजोल और प्रकृति से सीधा जुड़ाव भी यहां लोगों को तनावमुक्त और संतुष्ट जीवन जीने में मुख्य भूमिका निभाता है।
आज के दौर में धीरे-धीरे विकास प्रदेश के हर छोर तक पहुंच रहा है। जरूर पर्वतीय क्षेत्र में स्वास्थ्य और रोजगार के लिए आज भी बहुत कार्य किए जाने की आवश्यकता है। वहीं प्रदेश में मानव स्वास्थ्य के साथ ही पशु चिकित्सालयों की भी मात्रा फिलहाल बहुत कम है। शिक्षा के क्षेत्र में जरूर गांव-गांव तक विद्यालयों और विश्वविद्यालयों की पहुंच बढ़ी है। लेकिन कृषि के लिहाज से देखा जाए तो लगभग बीते चार – पांच दशकों से ऐसी शिक्षा प्रणाली को बढ़ावा दिया गया है जिससे लोगों के मन में खेती की बजाय नौकरियों की ओर आकर्षण बढ़ा है। जिसमें समाज में फैली झूठी प्रतिष्ठा की अंधी दौड़ भी एक बड़ा कारण है। जिस कारणवश पूरे समाज में कृषि सेक्टर की जगह सर्विस सेक्टर में जाने का मन बना। जिसके बाद देखते ही देखते उत्तराखंड एक भयंकर पलायन के दौर में चला गया। यही कारण है कि वर्तमान में उत्तराखंड की नदी घाटियों में स्थित गनाई, चौखुटिया, पिथौरागढ़, पौड़ी में खैरा-चौमासु, भगवती तलिया जैसे अनेक अन्न उत्पादक क्षेत्र बंजर हुए हैं या फिर बंजर होने की कगार पर हैं। खैरा-चौमासु को लेकर पहाड़ की एक कहावत बहुत प्रसिद्ध है कि जो बिंद (गुथ) गए सो मोती, और जो खैरा-चौमासु बस गए सो बस गए। पुराने लोगों की कही गई यह कहावत निश्चित ही वहां की संपन्नता को दर्शाती है।
वैश्विक महामारी कोविड-19 (कोरोना वायरस) के चलते हुए लॉक डाउन के कारण पूरे उत्तराखंड में मध्यम वर्ग के शिक्षित युवा जिनमें बीटेक इंजीनियर, होटल मैनेजमेंट, पॉलिटेक्निक आदि कई कोर्स किए हुए युवाओं के साथ ही छोटे – बड़े उद्योगों में काम करने वाले युवक वापस अपने गांव लौटे हैं। जिसे एक अनौपचारिक ही सही पर रिवर्स पलायन कहा जा सकता है। अकेले जिला पौड़ी गढ़वाल में लगभग 15 हजार युवा वापस अपने घर गांव लौटे हैं। ऐसे ही पूरे प्रदेश भर में यह आंकड़ा डेढ़ से दो लाख तक हो सकता है। वहीं वापस लौटे युवा खेती में जीवन के स्वावलंबन की संभावनाओं को देखने की कोशिश कर रहे हैं। साथ ही कुछ युवाओं ने अपने गांव में ही काम करने का भी मन बनाया है। लेकिन बीते कई दशकों में खेती की बड़ी उपेक्षा के कारण न तो युवाओं के पास खेती करने की परंपरागत विधि व जानकारी है और न ही आधुनिक खेती के लिए जलवायु परिवर्तन के कारण आने वाली चुनौतियों का समग्र अध्ययन है। पीढ़ी दर पीढ़ी चली आ रही पारंपरिक फसलें और खेती के तौर-तरीके भी तभी कारगर होते हैं जब वर्तमान समय की जलवायु भी उस समय के ही अनुकूल हो। जलवायु परिवर्तन का ताजा तरीन उदाहरण ग्वालदम के पास ब्रह्मसेरा स्थित बुग्याल का है। जहां अमूमन जून-जुलाई में खिलने वाले ब्रह्म कमल के फूल आज हजारों की संख्या में मार्च-अप्रैल के महीने में ही खिल उठे हैं। जलवायु परिवर्तन की इतनी बड़ी हलचल ने कृषि वैज्ञानिकों के माथे पर बल जरूर डाला होगा। पर्वतीय क्षेत्र में सबसे बड़ी चुनौती यह है कि वर्षों से बंजर पड़ी खेती अब विशाल झाड़ियों और वन्यजीवों का अड्डा बन गई है। ऐसे में खेती करने के लिए शून्य स्तर से कार्य करना अपने आप में पहाड़ जैसी ही विराट चुनौती है।
यूं तो उत्तराखंड में भारत का प्रसिद्ध गोविंद बल्लभ पंत कृषि विश्वविद्यालय और वीर चंद्र सिंह गढ़वाली औद्यानिक विश्वविद्यालय जैसे महत्वपूर्ण अध्ययन संस्थान मौजूद हैं। लेकिन ज्यादातर कृषि विश्वविद्यालयों का ध्यान सिर्फ क्रॉस ब्रीडिंग से अधिक मात्रा में अन्न पैदा करने पर रहा है। दुष्परिणामवश यहां की परंपरागत फसलें अब लगभग लुप्त हो गई हैं। उसके पीछे एक बड़ा कारण मौसम में आया बदलाव भी है। कई क्षेत्र ऐसे हैं जहां पूर्व में होने वाले फल और अनाज अब उस क्षेत्र में नहीं होते हैं। जैसे रानीखेत और भरसार के बगीचों में अब सेब की उत्तम गुणवत्ता और उत्पादन क्षमता दोनों ही कम हुए हैं। उसी तरह से पहाड़ों में बड़ी मात्रा में होने वाला कुट्टू, ओगल, पहाड़ी जौ, पहाड़ी धान और गेहूं की कई किस्में अब लुप्त हो गई हैं। जैसे सालीधान (खुशबूदार पहाड़ी धान की एक किस्म) पहले सभी घरों में पाया जाता था। जिसकी विशेष रूप से खीर बनाई जाती थी। यह एक उत्तम औषधि युक्त सुगंधित धान था। लेकिन अब इसका बीज मिलना भी कठिन है। आज के संदर्भ में जरूरी है कि खेती करने की रुचि रखने वाले शिक्षित युवाओं को एक व्यवस्थित कार्य स्वरूप के साथ ही तमाम संसाधन उपलब्ध कराये जाएं। बेहतर खेती के लिए हमें आज की वैज्ञानिक पद्धतियां अपनानी होंगी। जैसे बंजर खेतों को फिर से खेती लायक बनाने के लिए बैलों की जगह छोटे-छोटे ट्रैक्टरों को उपयोग में लाया जाए। सरकार की ओर से भी ट्रैक्टरों को सब्सिडी पर उपलब्ध कराया जाता है। जरूरी है कि युवाओं तक सरकारी योजनाओं की पहुंच ज्यादा से ज्यादा हो। जैसे 2 प्रतिशत ब्याज पर किसान ऋण योजना एक बहुत बड़ी कारगर योजना साबित हो सकती है। वहीं सिंचाई के लिए आज की खोजों के आधार पर तैयार ड्रिप प्रणाली या फव्वारा विधि के संसाधन उपलब्ध कराये जाएं। लेकिन पहाड़ों में सीढीनुमा खेत और मूलभूत सुविधाओं का अभाव एक बहुत बड़ी चुनौती है। ऐसे में फसल उत्पादन के लिए जरूरी हो जाता है कि नई तकनीक से वैकल्पिक व्यवस्थायें तैयार की जाएं।
वहीं मौसम में आ रहे बदलाव के कारण और जंगली जानवरों के खेती पर हो रहे निरंतर हमले से बचने के लिए फल व फसलों को उगाने पर गहन चिंतन और चर्चा करने की आवश्यकता है। इन तमाम परिस्थितियों पर नजर रखते हुए हमारे कृषि विश्वविद्यालय और वैज्ञानिकों को शोध व मार्गदर्शन करना चाहिए। हमें एक स्थाई समाधान के साथ ही आय देने वाले तरीकों पर कार्य करने की जरूरत है। जैसे जिन क्षेत्रों में पहले सेब के बगीचे रहे हैं वहां अब अखरोट के बगीचे लगा सकते हैं। इसी प्रकार कम पानी वाली जगहों पर एलोवेरा, गिलोय, तुलसी, हल्दी और अदरक आदि फसलों को उगाने के लिए प्रोत्साहित कर सकते हैं। वन्य जंतुओं के हमले से बचने के लिए गांव के बाहरी खेतों में ऐसी फसल या पेड़ लगाए जाएं जिसे जानवर नुकसान नहीं पहुंचाते हैं। मौसम में आ रहे लगातार बदलाव को देखते हुए भौगोलिक आधार पर ऐसी फसलें व पेड़ों को लगाया जाए जो मौसम की मार झेलने में अधिक सशक्त हों और किसानों को अच्छी आय मुहैया करा सकें। ग्लोबल वार्मिंग के कारण भविष्य की खेती वैज्ञानिकों के सामने एक बड़ी चुनौती बनकर आ रही है। परंतु लॉक डाउन में आई स्वावलंबन और स्वरोजगार की समझ ने उत्तराखंड में युवाओं को खेती की ओर आकर्षित किया है। जिसे पलायन रोकने और रोजगार उत्पन्न करने के लिए एक आशा की किरण माना जा रहा है। सरकार को चाहिए कि वह इन युवाओं को तमाम सुविधाएं उपलब्ध कराये। ताकि उजड़ते और बंजर पड़ते गांवों को जिंदा रखा जा सके।