नूरानांग: भारतीय सेना और चौथी गढ़वाल राइफल्स की गौरवशाली विजयगाथा – 17 नवंबर

क्या एक व्यक्ति इससे बेहतर मर सकता है,
जब वह कठिन परिस्थितियों का सामना करता हो…?

 

स्वतंत्रता के बाद के समय में चौथी गढ़वाल राइफल्स की गौरवपूर्ण गाथा, जिसे 7 दिसंबर 1959 को रेजिमेंट के प्रतिष्ठित सदस्य, दिवंगत मेजर जनरल (सेवानिवृत्त) सैयद मेहदी हसनैन, पी वी एस एम द्वारा पुनः गठित किया गया था, 1962 के उन घटनाक्रमों से रची गई थी, जब भारत के सैनिकों का नेफा (अब अरुणाचल प्रदेश) और लद्दाख में नरसंहार हुआ। चीनी ड्रैगन की पीपुल्स लिबरेशन आर्मी (पी एल ए) ने एक धोखेबाज हमले के माध्यम से भारत पर हमला किया, जिससे पंडित नेहरू का ‘हिंदी-चीनी भाई-भाई’ का विश्वास टूट गया। साथ ही, यह विश्वास कि हिमालय भारत को उत्तर से सैन्य आक्रमण से सुरक्षित रखेगा, पूरी तरह नष्ट हो गया। नेहरू, मेनन और मलिक की त्रिमूर्ति ने भारतीय सेना को एक ऐसी लड़ाई में धकेल दिया, जो उसकी पसंद, योजना और समय नहीं था। इसका परिणाम 3,400 सैनिकों की शहादत, हजारों के घायल होने और कई को युद्धबंदी बनने के रूप में सामने आया।

चौथी गढ़वाल राइफल्स को भी तवांग से आगे के सेला पास की ओर अग्रिम मोर्चे पर तैनात किया गया। उनकी भूमिका मुख्य रक्षा पंक्ति के लिए समय और सामरिक सहायता जुटाने की थी। नूरानांग में उनकी वीरता की गाथा लिखी गई, जब वह कम संसाधनों के बावजूद अद्वितीय साहस के साथ लड़े।

राइफलमैन जसवंत सिंह रावत की वीरता:
17 नवंबर 1962 की रात, 22 वर्षीय राइफलमैन जसवंत सिंह रावत ने अपने अद्वितीय साहस और बलिदान से अकेले दुश्मन की मशीन गन को चुप कराया। उन्होंने अपने प्राणों की आहुति देकर अपनी टुकड़ी को दुश्मन के हमले से बचाया। उनकी इस बहादुरी को सम्मानित करने के लिए नूरानांग को ‘जसवंतगढ़’ नाम दिया गया।

युद्ध सम्मान और स्मरण:
चौथी गढ़वाल राइफल्स को उनकी अद्वितीय वीरता के लिए ‘नूरानांग’ का युद्ध सम्मान मिला, जो इस युद्ध में किसी भी इकाई को मिला एकमात्र सम्मान है। उनकी इस गाथा को आने वाली पीढ़ियां हमेशा याद रखेंगी।

ब्रिगेडियर एस.डी. (पहाड़ी) डंगवाल
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