जैव विविधता का असंतुलन है केदारनाथ जैसी भयंकर त्रासदी

संदीप ढौंडियाल
देहरादून। हर वर्ष 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर तमाम सरकारी विभागों से लेकर गैर सरकारी संस्थानों की ओर से पर्यावरण को लेकर कई कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है। मौजूदा हालातों को देखते हुए इस कोरोना काल में भी कई संस्थानों की ओर से डिजिटल सेमिनार या वेबीनार के माध्यम से प्रकृति, पर्यावरण को लेकर चर्चाएं की जाएंगी। तरह-तरह के महानुभावों को आमंत्रित कर उनके लाइव सेशन कराए जाएंगे। जो कि एक अच्छी पहली भी है। क्योंकि निश्चित ही यह लोग समाज के लिए प्रेरणादायक होते हैं। जिन्होंने पर्यावरण के क्षेत्र में कई अभूतपूर्व कार्य किए होते हैं। लेकिन इस वर्ष एक कल्चर जरूर समाप्त होता नजर आएगा। जिसका फायदा मनुष्य जाति को मिले या न मिले पर प्रकृति को जरूर मिलेगा। बड़े-बड़े महंगे फाइव स्टार होटलों के कांफ्रेंस हॉल में पर्यावरण को बचाने की बातें नहीं होंगी। जून की तपती गर्मी में ऐ.सी. की ठंडक और गला तर करने के लिए प्रत्येक माननीयों के आगे नामी-गिनामी कंपनियों की प्लास्टिक वाली पानी की बोतल नहीं रखी जाएंगी। वहीं इस प्रकार की क्रांति भी जागृत नहीं होगी जिसमें सेमिनारों को सुनने गए लोग बाहर निकलते ही पेड़ की जड़ पर पीक मारते हुए कहते हैं कि भैया पर्यावरण तो बचाना ही होगा।

यूं तो भारत की संस्कृति में ही प्रकृति बसती है। बताया जाता है कि भारत की 80 प्रतिशत जनसंख्या गांवों में बसती है। जिनका प्रकृति से सीधा जुड़ाव होता है। गांवों की मूलभूत जरूरतों को पूरा करती है प्रकृति। इसलिए ग्रामीणों की ओर से आसपास मौजूद प्रकृति का पालन – पोषण किया जाता है। साथ ही उसका लाभ भी उठाया जाता है। अगर देखा जाए तो पर्यावरण को बचाने की जद्दोजहद सही मायने में ग्रामीण क्षेत्रों में ही हुई है। पर्यावरण के क्षेत्र में तमाम आंदोलन और क्रांतियां ग्रामीण क्षेत्रों की ही देन हैं। अगर देखा जाए तो हमारे गांव ही प्रकृति, पर्यावरण और यहां की संस्कृति को ज्यादा जिम्मेदाराना तरीके से समझते हैं और उनका संरक्षण करते हैं। ऐसे में अब हमारी भी जिम्मेदारी बनती है कि ऐसे कायदे कानून बनायें जाएं जो प्रकृति के प्रति नरम और दोहन करने वालों के खिलाफ सख्त से सख्त हों।

हर वर्ष विश्व पर्यावरण दिवस के मौके पर चर्चा के लिए एक थीम या विषय का चयन किया जाता है। इस वर्ष ‘जैव विविधता’ जैसे महत्वपूर्ण विषय का चयन किया गया है। जैव विविधता अर्थात जीवों के अनेक प्रकार या कह सकते हैं जीवन के अनेक रूप। प्रकृति में मौजूद वनस्पति से लेकर सभी जीव जंतुओं की संतुलित मौजूदगी पर चिंता ने ही जैव विविधता पर चिंतन की परिकल्पना की। निरंतर होते जा रहे प्रकृति के दोहन ने आज पूरे विश्व का ध्यान आकर्षित कर सोचने पर मजबूर किया है। इन्हीं तमाम चिंताओं को लेकर विश्व समुदाय ने 22 मई को अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस के रूप में मनाने का भी निर्णय लिया। जिस प्रकार से पर्यावरण दिवस पर प्रत्येक वर्ष एक नए विषय पर पूरे विश्व भर में चिंतन और मनन होता है। उसी प्रकार जैव विविधता को लेकर भी प्रत्येक वर्ष नये विषय पर चर्चायें की जाती हैं। साथ ही उस पर तमाम देश अच्छे सुझाव को लेकर जैव विविधता के संरक्षण के कार्य को अंगीकार करते हैं।

सही मायने में प्रकृति (जैसे – हवा, पानी, पेड़, वनस्पति सहित वन्य जीव जंतुओं) का मानव से सीधा जुड़ाव ही जैव विविधता है। प्रकृति या पर्यावरण का असंतुलित हो जाना ही कारण बनता है प्राकृतिक उथल – पुथल का। जिसके फिर भयंकर परिणाम सामने आते हैं। जैसे बाढ़, चक्रवात, तूफान और भूकंप जैसी अप्रिय घटनाओं का होना। इन सब को देखते हुए मानव सभ्यता को बचाने के लिए जरूरी हो जाता है कि हम प्रकृति को उसके मूल स्वरूप में ही रहने दें। प्रकृति के साथ किसी भी प्रकार की छेड़छाड़ करने का अर्थ है प्रकृति का रुष्ट और क्रोधित हो जाना। दुष्परिणाम स्वरूप 2013 की केदारनाथ जैसी भयंकर त्रासदी का घटित होना। पूर्व में ऐसी घटनाएं ही कारण भी रही है कि जैव विविधता के संरक्षण के लिए विश्व भर में आवाज उठने लगी। 29 दिसंबर 1992 को नैरोबी के एक कार्यक्रम में जैव विविधता दिवस को अंतरराष्ट्रीय जैव विविधता दिवस के रूप में मनाए जाने का निर्णय लिया गया। लेकिन तमाम देशों की ओर से कठिनाइयां व्यक्त करने के बाद 29 मई की जगह 22 मई को अंतर्राष्ट्रीय जैव विविधता दिवस मनाए जाने का निर्णय लिया गया। जिसमें प्रकृति के साथ ही संस्कृति के संरक्षण पर भी बल दिया गया। जैसे भाषा – संगीत, कला – शिल्प के साथ ही पारंपरिक वस्त्र और भोजन आदि को जोड़कर इनके संरक्षण पर भी ध्यान केंद्रित किया गया।

अगर भारत की बात करें तो पूरे देश की लगभग 28 प्रतिशत जैव विविधता हिमालयी क्षेत्र में है। जिसमें से एक बड़ा हिस्सा उत्तराखंड में मौजूद है। राज्य में 6 राष्ट्रीय उद्यानों सहित 7 वाइल्ड लाइफ सेंचुरी, 4 कंज़र्वेशन और एक बायोस्फीयर रिजर्व मौजूद है। वर्तमान समय में सरकारों की ओर से अपने स्तर पर जैव विविधता संरक्षण को लेकर कई कार्य किए जा रहे हैं। जैसे लगातार लुप्त होते जा रहे भारतीय चीता और शेरों की ओर ध्यान गया तो उनके संवर्धन और संरक्षण के लिए लगातार कार्य किया जाने लगा। ऐसे ही प्रयासों के लिए उत्तराखंड राज्य में भी उत्तराखंड जैव विविधता बोर्ड का गठन किया गया है। मौजूदा समय में जैव विविधता संरक्षण के लिए तमाम ग्रामीण क्षेत्रों में वृहद रूप में कार्य किए जाने की आवश्यकता है। ग्रामीण अंचल में बसी हुई प्रकृति और संस्कृति को संजोए रखना आज किसी चुनौती से कम नहीं है। ऐसे में हमें चाहिए कि जैव विविधता संरक्षण के लिए दूरस्थ क्षेत्रों के गांवों को जोड़कर इसमें ग्रामीणों की भागीदारी सुनिश्चित की जाए। उत्तराखंड प्राकृतिक सम्पदा से धन-धान्य राज्य है। यहां के लोगों की तमाम धार्मिक मान्यताएं हमें प्रकृति से सीधे जोड़ती हैं। ऐसे में यहां के पौराणिक मठ – मंदिरों को भी जैव विविधता में शामिल किया जाना चाहिए। साथ ही उनके संवर्धन और संरक्षण के लिए अनवरत प्रयास किए जाने की नितांत आवश्यकता है। पर्यावरण संरक्षण को लेकर हमारी संस्कृति रही है कि हमने पशु, पेड़, पक्षियों से लेकर नदियों तक को भगवान या मां का दर्जा दिया है। विश्व समुदाय आज पर्यावरण को लेकर कुछ हद तक जागरूक हुआ है। लेकिन हमारी उत्तराखंड की संस्कृति में हरेला जैसे त्योहारों को मनाने की परंपरा सदियों से रही है। निश्चित रूप से यह दर्शाता है कि हमारे पूर्वज पर्यावरण संरक्षण को लेकर कितने संवेदनशील और जागरूक थे। पर्यावरण संरक्षण के महत्व को आज के संदर्भ में इन पंक्तियों से समझा जा सकता है –
श्रृंखलाएं पर्वतों की, क्यों दहाड़ मारे रो उठी। बाघ, पानी, पेड़, पक्षी, है मानवों से क्यों डरी।। है सभ्यता का अंत निश्चित, जो अनादि से थी अडिग खड़ी। विनाशरूपी विकास में, कुछ हिस्सेदारी मेरी सही।।